जाति और धर्म के आधार पर मतदान लोकतंत्र को क्या बनाता है?

जाति के आधार पर लोकतंत्र में मतदान

लोकतंत्र में जाति एवं धर्म के आधार पर मतदान: 

अक्सर ऐसा कहा जाता है कि लोकतंत्र में लोगों को जाति एवं धर्म के आधार पर मतदान नहीं करना चाहिए, क्योंकि जाति एवं धर्म के आधार पर चुना गया व्यक्ति उस राष्ट्र के लिए योग्य हो, यह संभव हो सकता है परंतु अत्यंत मुश्किल है और यह भी पूरी तरह से निश्चित है कि ऐसी व्यवस्था के आधार पर चुना गया व्यक्ति हर बार योग्य नहीं हो सकता। 
इस व्यवस्था के आधार पर चलने वाला लोकतंत्र धीरे धीरे कबीलाई सभ्यता और मजहबी मुल्क में बदल जाता है। 


हालांकि जब हम बात धर्म की करते हैं तो उसके अनेक अर्थ होते हैं और किसी भी कार्य में यदि धर्म ना हो तो उस कार्य का अस्तित्व ही अर्थहीन है। परंतु यहां जब हम धर्म शब्द का प्रयोग करते हैं तो उसका अर्थ मजहब एवं संप्रदाय से है।


भारत के संदर्भ में यदि हम मजहबी शासन एवं प्रशासन की बात करते हैं तो हमें भारत के पिछले 1000 वर्षों के इतिहास को देखना चाहिए, क्योंकि इन्हीं पिछले 1000 वर्षों में भारत में धार्मिक विविधता, धार्मिक शासन और धार्मिक असहिष्णुता अधिक बढ़ी है। इससे पूर्व भारत में भारतीय मूल के सम्राटों का शासन था, जो सनातन धर्म के विभिन्न घटकों को संरक्षण देते थे, चाहे हिंदू धर्म हो या बौद्ध अथवा जैन धर्म 



भारत में लोकतंत्र का इतिहास

प्राचीन भारत मे विभिन्न प्रकार की शासन पद्धतियां चलती थीं। मगध जैसे कुछ महाजनपदों में राजतंत्र था तो वैशाली जैसे कुछ महाजनपदों में गणतंत्र एवं लोकतंत्र भी था। कुछ महाजनपदों में राजा का निर्धारण उनकी वंश परंपरा के आधार पर होता था तो कुछ महाजनपदों में उसे महाजनपद की प्रजा द्वारा चुना जाता था। 
इस आधार पर हम कह सकते हैं कि भारत में लोकतंत्र का इतिहास हजारों वर्ष पुराना है और भारत भूमि ही वास्तव में लोकतंत्र की जननी है। जबकि यदि वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था की बात की जाए तो यह 200 से 250 वर्ष से अधिक पुरानी नहीं है। 


वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था

भारत जोकि अंग्रेजो से मिली स्वतंत्रता के पश्चात संवैधानिक आधार पर एक लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित बना था, जिस लोकतांत्रिक पद्धति को पूरे देश में एकरूपता के साथ प्रथम बार अंगीकृत किया गया था, उस लोकतंत्र को अपनाने के 75 वर्ष बाद 2022 में यदि हम भारत में अपनाई गई लोकतांत्रिक एवं गणतांत्रिक व्यवस्था की सफलता एवं इस व्यवस्था के क्रियान्वयन पर चर्चा करते हैं तो हमें कुछ बहुत सुखद परिणाम भी मिलते हैं और कुछ बहुत ही निराशाजनक परिणाम भी देखने को मिलते हैं।


अपने साथ स्वतंत्र हुए अन्य लोकतांत्रिक देशों से भारत की तुलना

 भारत के साथ अनेक देश आजाद हुए थे, कुछ आगे तो कुछ पीछे। उन देशों से यदि भारतीय लोकतंत्र एवं भारतीय गणतंत्र की तुलना की जाती है तो हम भारतवासी सभी देशों की लोकतांत्रिक व्यवस्था से कहीं आगे भी नजर आते हैं तो कहीं पीछे भी। 

यदि हम अपने ही देश के टुकड़े की बात करें जिसे हम पाकिस्तान के नाम से जानते हैं जो हमसे 1 दिन पहले जन्मा था, उस मुल्क में भी भारत की ही तरह लोकतांत्रिक एवं गणतांत्रिक व्यवस्था अपनाई गई थी परंतु उसे संवैधानिक आधार पर धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र न घोषित करके इस्लामिक मुल्क बनाया गया था। 

यदि हम पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान, अरब अथवा यूरोपीय देशों में, जिन देशों में लोकतांत्रिक व्यवस्था है, वहां हम धर्म अथवा नस्ल के आधार पर यदि मतदान की चर्चा करें तो यह काफी हद तक प्रासंगिक है, क्योंकि उन देशों का अस्तित्व एवं उनका आधार ही धर्म एवं नस्ल की वजह से है जबकि भारत का इतिहास हजारों- लाखों वर्ष पुराना है। भारत में लोकतंत्र भी हजारों वर्ष पुराना है। भारतीय लोगों में वसुधैव कुटुंबकम की भावना है और जहां वसुधैव कुटुंबकम की भावना हो, वहां जाति एवं धर्म के आधार पर विभेद हो ही नहीं सकता। 


भारत में जातीय एवं धार्मिक विभेद का इतिहास

भारत में लोगों के अंदर जाति एवं धर्म के आधार पर विभेद के इतिहास में जाएं तो यह भी शायद पिछले कुछ हजार वर्षों से ही आरंभ हुआ है। जब भारतीय मूल के लोगों का तलवार के बल पर धर्मांतरण किया जाने लगा, जब लोगों को मुस्लिम या ईसाई बनाया जाने लगा और विशेष तौर पर यह विभेद भारत में अंग्रेजों के आने के पश्चात सर्वाधिक बढ़ा। 

अंग्रेजों ने भारत में प्रशासन के लिए ऐसी ऐसी नीतियां अपनायीं, जिसके द्वारा भारतीय लोगों को उनके धर्म एवं संप्रदाय के आधार पर बांट सकें, उन्हें जातियों के आधार पर बांट सकें। कभी मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचन की व्यवस्था करते तो कभी दलितों की परिभाषा गढ़ कर उनके लिए अलग निर्वाचन पद्धति की व्यवस्था करने की बात करते।

कभी मोहम्मद अली जिन्ना को मुस्लिमों के लिए अलग देश की मांग उठाने के लिए उकसाते तो कभी भीमराव अंबेडकर को दलितों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र देने के लिए उकसाते।

लोकतंत्र में जाति एवं धर्म के आधार पर मतदान के नुकसान 

लोकतंत्र जैसा कि इस शब्द से ही स्पष्ट है- लोगों का तंत्र अर्थात एक ऐसा प्रशासनिक तंत्र, एक ऐसी शासन पद्धति जिसमें किसी क्षेत्र विशेष के मुखिया का निर्धारण, किसी क्षेत्र विशेष की शासन पद्धति का निर्धारण लोगों के द्वारा किया जाए, लोगों के हित के लिए किया जाए, शासन के स्तर पर योजनाएं लोगों के हित को ध्यान में रखकर बनाई जाए और उन योजनाओं तथा उन शासकों का अस्तित्व एवं आधार भी लोक कल्याण हो।


जब हम किसी लोकतांत्रिक राष्ट्र में प्रशासनिक प्रतिनिधियों के निर्धारण के लिए होने वाले मतदान की बात करते हैं तो आशा यह की जाती है कि लोग यह मतदान किसी भी प्रकार के लोभ अथवा लालच में पड़कर ना करें, किसी भी प्रकार की मानसिक संकीर्णताओं में पड़कर ना करें, चाहे वह मुफ्तखोरी का लालच हो या जाति अथवा धर्म की संकीर्ण मानसिकता। 

क्योंकि जाति एवं धर्म के आधार पर चुना गया व्यक्ति उस राष्ट्र में जाति एवं धर्म के आधार पर विभेद को ही बढ़ावा देगा। वह उस राष्ट्र की उन्नति एवं लोक कल्याण की योजनाओं को बनाने के स्थान पर वह उस जाति अथवा धर्म को मानने वाले लोगों की आकांक्षाओं को पूर्ण करने पर ही ध्यान देगा। इस कारण से वह उस राष्ट्र के अस्तित्व के लिए खतरा बनेगा, उस राष्ट्र की एकता, अखंडता एवं सहिष्णुता के लिए खतरा बनेगा, उस राष्ट्र की प्रगति के लिए बाधक बनेगा। 

और इसके लिए हमें विदेशों से उदाहरण लेने की आवश्यकता भी नहीं है क्योंकि अंग्रेजों ने इसी विभाजनकारी नीति के जरिए भारत में हिंदू एवं मुस्लिम बहुलता के आधार पर दो विभिन्न राष्ट्रों के सिद्धांत की थ्योरी गढ़ी थी और ऐसा ही वह दलितों के लिए भी करने वाले थे परंतु महात्मा गांधी की दूरदर्शिता के कारण वह ऐसा करने में सफल नहीं हो सके। 

September 1931 में अंग्रेजों ने लंदन में द्वितीय गोलमेज सम्मेलन का आयोजन किया था, जिसमें कांग्रेस की ओर से महात्मा गांधी को भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए आमंत्रित किया गया था। इस सम्मेलन में अंग्रेजों की योजना महात्मा गांधी एवं भीमराव अंबेडकर के बीच दलितों के लिए पृथक निर्वाचन क्षेत्र के सिद्धांत पर सहमति बनवाने की थी, जिसे महात्मा गांधी ने समझ लिया और सम्मेलन को बीच में ही छोड़ कर देश वापस आ गए। 


अंग्रेजों की इस पृथक निर्वाचन क्षेत्र के सिद्धांत के परिणाम को वर्तमान समय में हम भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे अलग-अलग देशों के रूप में देख सकते हैं जो एक ही अखंड भारत वर्ष के विभिन्न हिस्से हैं। 

इसी तरह विभिन्न मतों के आधार पर मतदान के विभाजन कारी परिणाम को हम भारत के बाहर कोरिया प्रायद्वीप में भी देख सकते हैं। इसमें उत्तर कोरिया कम्युनिस्ट विचारों वाला क्षेत्र है जबकि दक्षिण कोरिया लोकतांत्रिक विचारों वाली भूमि। 1950 में कोरिया युद्ध के परिणाम स्वरूप दो अलग-अलग कोरियाई देशों के गठन के पश्चात आज भी अक्सर दोनों देशों के मध्य तनाव उत्पन्न होते रहते हैं। 

निष्कर्ष

इस आधार पर इतने उदाहरणों को देखने के पश्चात हम कह सकते हैं कि जाति एवं धर्म के आधार पर या किसी विशेष विचारधारा के आधार पर किया जाने वाला मतदान किसी राष्ट्र की लोकतांत्रिक व्यवस्था को नष्ट कर देता है। वह उस राष्ट्र की उन्नति में तो बाधक बनता ही है, साथ ही उस राष्ट्र में गृहयुद्ध जैसे हालात भी पैदा कर देता है। उस राष्ट्र में ना केवल लोगों में मानसिक रूप से विभाजन होता है बल्कि उस मानसिक विभेद का परिणाम उस देश की अखंडता एवं एकता पर भी पड़ता है।

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