ग्रीन हाउस प्रभाव क्या है | ग्रीन हाउस प्रभाव के खतरे

ग्रीन हाउस प्रभाव क्या है


ग्रीन हाउस प्रभाव(हरित गृह प्रभाव)
ग्रीन हाउस प्रभाव का अर्थ
ग्रीन हाउस प्रभाव के कारण
ग्रीनहाउस गैसें


नमस्कार दोस्तों, आनंद सर्किल में आप सभी का हार्दिक स्वागत है। आज इस आलेख में हम ग्रीन हाउस प्रभाव पर चर्चा करेंगे। ग्रीन हाउस प्रभाव क्या है, इसे ग्रीन हाउस प्रभाव क्यों कहा जाता है, ग्रीन हाउस प्रभाव में कौन-कौन सी गैसें होती हैं, इसका वातावरण पर क्या प्रभाव पड़ता है और यह क्यों हानिकारक है? इन सभी पर चर्चा की जाएगी।

सबसे पहले यह जानते हैं कि ग्रीन हाउस प्रभाव या हरित गृह प्रभाव क्या है?
ग्रीन हाउस प्रभाव शब्द आरहिनियस ने दिया था। हरित गृह यूरोप के किसानों द्वारा प्रयोग किया जाने वाला पारदर्शी कांच अथवा प्लास्टिक के तिरपाल का एक घर होता है, जो पूरी तरह से कवर होता है ताकि इसके अंदर की हवा बाहर ना जा सके। इसे हरितगृह (ग्रीन हाउस) इसलिए कहा जाता है क्योंकि इसके अंदर की सब्जियों का रंग हरा होता है और पारदर्शी होने के कारण ऊपर से देखने पर यह हरा रंग का दिखाई देता है। इसकी विशेषता यह होती है कि यह सूर्य के ताप को अपने अंदर तो आने देता है पर अंदर की गर्मी को बाहर नहीं जाने देता। इसका प्रयोग यूरोप में ठंडी से सब्जियों को खराब होने से बचाने के लिए किया जाता है, क्योंकि वहां सर्दियों में तापमान बहुत कम हो जाता है। भारत में ऐसी समस्या नहीं होती है क्योंकि यहां तापमान 0 डिग्री से नीचे नहीं जाता। इस वजह से यहां शीत ऋतु में सब्जी की खेती को बचाने के लिए ऐसे किसी प्रभाव की या ऐसे किसी हरितगृह की जरूरत नहीं पड़ती जबकि यूरोप में, अमेरिका में ठंडी में तापमान बहुत कम हो जाता है, 0 से भी काफी नीचे चला जाता है जिससे सब्जियां ठंड से खराब हो जाती हैं। इस वजह से उन्हें ठंड से बचाने के लिए ऐसे कांच के घरों में रखा जाता है ताकि अंदर का तापमान बाहर के वातावरण की अपेक्षा अधिक बना रहे और सब्जियों को खराब होने से बचाया जा सके। इस प्रभाव का मूल कारण कार्बन डाइऑक्साइड गैस होती है, जो ग्रीन हाउस के अंदर की ऊष्मा को अवशोषित कर अंदर का ताप अधिक बनाए रखता है, जिससे उसमे उमस बनी रहती है। 

इस प्रकार कृषि के लिए हरितगृह या हरित गृह प्रभाव लाभदायक है परंतु वास्तव में वैश्विक तौर पर जिस हरित गृह प्रभाव (ग्रीन हाउस प्रभाव) की बात होती है, वह कृषि से संबंधित नहीं है बल्कि पृथ्वी के तापमान और वातावरण से संबंधित है और यह ग्रीन हाउस प्रभाव एक सीमा तक ही उपयोगी है, सीमा से अधिक होने पर ये अत्यधिक हानिकारक है।  किस प्रकार हानिकारक है? आगे समझते हैं-

ग्रीन हाउस प्रभाव का अर्थ एवं महत्त्व

हम जानते हैं कि दिन में पृथ्वी का जो भाग सूर्य के सामने होता है, वह सूर्य की ऊष्मा से, सूर्य के ताप से गर्म होता रहता है परंतु जब वह भाग सूर्य के विपरीत होता है तो दिन में गर्म हुई सतह से रात में ऊष्मा उत्सर्जित होती है। यह ऊष्मा पृथ्वी के वातावरण से पूरी तरह से बाहर नहीं जा पाती बल्कि बादलों या जलवाष्प के द्वारा अवशोषित कर ली जाती है जिससे पृथ्वी के वातावरण में उमस बरकरार रहती है। यही वजह है कि पृथ्वी में इतनी जैव विविधता पाई जाती है अन्यथा यहां भी स्थिति चंद्रमा के समान होती कि दिन का तापमान अधिक होता और रात का तापमान 0 से भी बहुत नीचे चला जाता। इसी प्रभाव को ग्रीन हाउस प्रभाव कहा जाता है। इसके लिए कार्बन डाइऑक्साइड जिम्मेदार है। प्रकृति में कार्बन डाइऑक्साइड पहले से ही विद्यमान थी परंतु पूर्व औद्योगिक काल में इसकी मात्रा 0.028% [280 PPM(parts per million)] थी, जो औद्योगिक क्रांति के बाद बढ़कर 0.03% [330 PPM] हो गई थी और आधुनिक समय में यह 0.04% [400 PPM] तक पहुंच चुकी है।  


पृथ्वी के वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड और अन्य ग्रीन हाउस गैसों की बढ़ी हुई यह मात्रा इसलिए हानिकारक है क्योंकि ये गैसें पृथ्वी से उत्सर्जित होने वाली ऊष्मा को अवशोषित कर लेती हैं। 

ग्रीन हाउस प्रभाव के कारण

ग्रीन हाउस प्रभाव के लिए सर्वाधिक जिम्मेदार कार्बन डाइऑक्साइड है, इसके बाद ग्लोबल वार्मिंग के लिए जिम्मेदार तत्वों में दूसरे स्थान पर मीथेन है। पृथ्वी के वायुमंडल में मीथेन का घनत्व 1750 ई० के बाद से लगभग 150% की वृद्धि हुई है। वैश्विक वायुमंडल में मीथेन गैस की मात्रा को वर्ष 2019 में अब तक के शीर्षतम स्तर पर दर्ज किया गया है। 2019 में हवा में मीथेन का अंश 1,875 PPB (Parts per billion) पर पहुंचा जबकि 2018 में यह 1,866 PPB था। एक Parts per billion का अर्थ है कि हवा के एक अरब (बिलियन) कणों में एक अंश मीथेन का है। 
इसी प्रकार 2020 में नाइट्रस ऑक्साइड की वायुमंडलीय सांद्रता 333 PPB तक पहुंच गई  , जो सालाना लगभग 1 PPB की दर से बढ़ रही है। इसी तरह अन्य सभी ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा वायुमंडल में लगातार बढ़ती जा रही है
पृथ्वी पर सूर्य की किरणें लघु तरंगदैर्ध्य (Short wavelength) के रूप में आती हैं और पृथ्वी से उत्सर्जित होकर दीर्घ तरंगदैर्ध्य (Long wavelength) के रूप में वापस जाती हैं। इन दीर्घ तरंगदैर्ध्य की किरणों को ये ग्रीन हाउस गैसें अवशोषित कर लेती हैं। इन गैसों की मात्रा अधिक होने पर ये अधिक किरणों और अधिक ऊष्मा का अवशोषण कर रही हैं जिससे औद्योगिक काल से पहले पृथ्वी से उत्सर्जित होने वाली जितनी ऊष्मा पृथ्वी के वातावरण के पार चली जाती थी, अब उस विकिरण ऊष्मा (दीर्घ तरगदैर्घ्य किरणों) की अन्तरिक्ष मे जाने वाली मात्रा घटने लगी है। अब अधिक ऊष्मा पृथ्वी के वातावरण में ही रुकने लगी है, जिसके कारण पृथ्वी का वातावरण गर्म हो रहा है और वातावरण गर्म होने से पृथ्वी की सतह का तापमान भी बढ़ रहा है। पृथ्वी की सतह के तापमान की इसी वृद्धि को ग्लोबल वार्मिंग कहा जाता है। 

ग्रीन हाउस गैसें

2012 तक ग्रीनहाउस प्रभाव के लिए 6 प्रकार की गैसों को जिम्मेदार माना जाता था-
Carbon di oxide (CO2), 
Methane (CH4), 
Nitrous oxide (N2O), 
Hydro Fluorocarbons(HFCs),
Per Fluorocarbons(PFCs),
Sulphur hexafluoride (SF6)
2012 में दोहा(कतर) में हुए COP-18 (Conference of parties) सम्मेलन में NF3 को भी ग्रीन हाउस गैसों में शामिल कर लिया गया था। इस प्रकार अब ग्रीन हाउस प्रभाव के लिए सामूहिक रूप से 7 गैसें जिम्मेदार हैं परंतु सर्वाधिक जिम्मेदार कार्बन डाइऑक्साइड है। संपूर्ण ग्लोबल वार्मिंग के लिए 60% अकेले CO2 ही जिम्मेदार है। 

पृथ्वी के वातावरण का ताप बढ़ने का एक और कारण ओजोन परत का क्षरण है जो इसी ग्रीन हाउस प्रभाव की वजह से है क्योंकि ग्रीन हाउस प्रभाव की अधिकतर गैसें ओजोन परत का भी क्षरण करती हैं, जिससे ओजोन परत की सांद्रता, उसका आयतन क्षीण हो रहा है, यहां तक कि अंटार्कटिक क्षेत्र के ऊपर ओजोन परत में छेद भी हो गया है और सूर्य से आने वाली जितनी पराबैंगनी किरणें पहले ओजोन परत के द्वारा परावर्तित हो जाती थीं,  वो भी अब घटने लगी हैं। यहां एक बात ध्यान देने योग्य है कि कार्बन डाइऑक्साइड और हाइड्रो फ्लोरो कार्बन ओजोन परत का क्षरण नहीं करती हैं परंतु ग्लोबल वार्मिंग के लिए जिम्मेदार हैं।
 
यही वजह है कि पृथ्वी की सतह के औसत तापमान में वृद्धि के लिए ग्रीन हाउस गैसें जिम्मेदार हैं। पृथ्वी के औसत तापमान में वृद्धि होने से पृथ्वी के विभिन्न क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन हो रहा है। मौसमी घटनाएं समय से पहले होने लगी हैं अथवा समय पर नहीं हो रही हैं। अचानक से कहीं भारी बारिश हो जाती है तो कहीं सूखा पड़ जाता है। रेगिस्तानी क्षेत्रों की संख्या और उनकी सीमा बढ़ने लगी है। उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों का ताप बढ़ने लगा है। समुद्रों में आने वाले उष्णकटिबंधीय चक्रवातों की संख्या बढ़ने लगी है। ग्लेशियर तेजी से पिघलने लगे हैं, जिससे नदियों में बगैर वर्षा के बाढ़ आ जा रही है, हिमस्खलन बढ़ने लगे हैं। इस प्रकार से जलवायु परिवर्तन के अनेक परिणाम सामने आने लगे हैं। 


पृथ्वी की सतह के औसत तापमान में औद्योगिक क्रांति से पहले के स्तर में अब तक 1 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो चुकी है और ऐसी संभावना है कि यदि इसे रोकने के लिए कदम नहीं उठाए गए तो 2050 तक उसमें 1.5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो जाएगी और 21वीं सदी के अंत तक मारीशस जैसे देश और समुद्र तटों पर बसे हुए दुनिया के कई बड़े शहर समुद्र में डूब जाएंगे क्योंकि पृथ्वी की सतह के तापमान में वृद्धि होने से समुद्रों के जल का ताप भी बढ़ेगा, ध्रुवों पर जमे हुए ग्लेशियर भी पिघलेंगे जिससे समुद्रों का आयतन भी बढ़ेगा जिससे समुद्री क्षेत्रों मे बसे हुए दुनिया के अनेक बड़े शहरों के डूबने की संभावना भी बढ़ने लगी है।

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